Wednesday, 20 May 2015

चलते जा रहे हैं...

ना मंजिल, ना ठिकाना
पता नहीं कहाँ है जाना
बस चलते जा रहे हैं, चलते जा रहे हैं
चलते जा रहे हैं

कौन अपना, कौन बेगाना 
ना जानने की कोशिश की, ना जाना
इस मोह से दूर, बस चलते जा रहे हैं
चलते जा रहे हैं

जो है, उसे नहीं है खोना
कुछ था, और, कुछ है पाना
इसी उम्मीद में, चलते जा रहे हैं
चलते जा रहे हैं

बीते हुए लम्हों का, बार बार सताना
उन यादों से दूर, मुश्किल है निकल पाना
फिर भी इस कोशिश में, बस चलते जा रहे हैं 
चलते जा रहे हैं

रोते को हँसाना, रूठे को मनाना
बिछड़े हुए को अपनों से मिलाना
दिल से दुआ करते हुए, चलते जा रहे हैं
चलते जा रहे हैं

सपने देखना और सपने दिखाना
फिर सपनों को हक़ीकत बनाना
इसी प्रयास में, बस चलते जा रहे हैं
चलते जा रहे हैं

जिसे दिल से चाहें, उसे अपनाना
प्रेम जताने के लिए, हिम्मत जुटाना
ये हिम्मत पाने के लिए, चलते जा रहे हैं
चलते जा रहे हैं

सच को सच, झूठ को झूठ ठहराना
सबको हक और न्याय दिलाना
हर मुश्किल को आसान बनाने के लिए
बस चलते जा रहे हैं, चलते जा रहे हैं

ना मंजिल, ना ठिकाना
पता नहीं कहाँ है जाना
बस चलते जा रहे हैं, चलते जा रहे हैं
चलते जा रहे हैं...

                       *राकेश वर्मा*

Monday, 18 May 2015

अगर तुम हो तो

यदि तुम ऐसा सोचती हो
कि मैं कवि हूँ
तो फिर तुम मेरी कविता हो,
ये जो कविता की इन पंक्तियों को लिख रहा हूँ
इनकी वजह भी तुम ही हो,
तुम तो मेरे ख्यालों में रहती हो
शायद यही वजह है कि
कलम तो खुद-ब-खुद चल पड़ती है,
क्योंकि इन ख्यालों की वजह भी तुम ही हो,
इसका मतलब
तुम नहीं, तो ये ख्याल नहीं
ख्याल नहीं, तो ये पंक्तियाँ नहीं
और ये पंक्तियाँ नहीं
तो फिर कविता नहीं
कविता नहीं, तो कवि नहीं
यानी तुम नहीं
तो मैं नहीं...
                                                     
                                  *राकेश वर्मा*

जब लफ्ज़ ही काफ़ी हों


मैं थोड़े से रह जाता हूँ





ऐसा क्यों


मेरे बचपन के दिन